ऋग्वेद को प्रथम वेद माना जाता है। ऋग्वेद में विभिन्न देवी–देवताओं के स्तुति संबंधित मंत्रों का संकलन है। ऋग्वेद के मंत्रों का प्रादुर्भाव भिन्न-भिन्न समय पर हुआ। कुछ मंत्र प्राचीन हैं और कुछ आधुनिक। अतः इनका वर्णन विषय भी भिन्न है। मंत्रों के वर्ण्य विषय को ध्यान में रखते हुए इन्हें विभिन्न मण्डलों में व्यवस्थित कर दिया गया। ऋग्वेद की पाँच शाखाओं का उल्लेख शौनक द्वारा चरणव्यूह नामक परिशिष्ट में किया गया है । ऋग्वेद की पाँच शाखाए शाकल, वाष्कल, आश्वलायन, सांख्यायन, माण्डूकायन हैं। इन 5 शाखाओं में से आजकल की प्रचलित शाखा शाकल ही है। शाकल शाखा के अनुसार ऋग्वेद का विभाजन मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मंत्र में किया गया है। ऋग्वेद में 10,600 मंत्र है जोकि 1028 सूक्तों में बांटे गए हैं, 1028 सूक्त 85 अनुवाकों में और 85 अनुवाक 10 मण्डलों में विभाजित हैं। ऋग्वेद को प्रथम वेद माना जाता है और प्रथम वेद के प्रथम मंत्र को होतारं रत्नधातमम् कहा जाता है।
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् . होतारं रत्नधातमम् (ऋग्वेद मंडल १, सूक्त १, मंत्र १)
इस मंत्र का भावार्थ है कि, मैं अग्नि की स्तुति करता हूँ। वे यज्ञ के पुरोहित , दानादि गुणों से युक्त , यज्ञ में देवों को बुलाने वाले एवं यज्ञ के फल रूपी रत्नों को धारण करने वाले हैं।
हे अग्नि देव तुम्हें नमन हो
हो यज्ञ के पुरोहित तुम हो
हवि साधन दान के धन हो
देवों के आवाहन तुम हो
यज्ञ फल रत्न धारक भी हो
हे अग्नि देव तुम्हें नमन हो
ऋग्वेद के पहले ही मंत्र में अग्नि की स्तुति है क्योंकि अग्नि के साधन से ही यज्ञ संभव है, यज्ञ के द्वारा ही देवों को दान पहुँचाने का मार्ग बनता है और उसी मार्ग से देवों का अपने साधक के कल्याण हेतु यज्ञ के पारितोषिक प्रदान करने के लिए आगमन संभव है।
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