सत्यनारायण के नाम में ही उद्देश्य छिपा हुआ है। अर्थात सत्य ही नारायण हैं या नारायण ही सत्य हैं। इसका तात्पर्य क्या हुआ। आईये थोड़ा विचार करते हैं।
प्रथम भाव को यदि लें। सत्य ही नारायण हैं। मेरे अनुसार तो इस वाक्य का तात्पर्य हुआ कि सत्य का आराधक ही नारायण का आराधक है। विस्तार करें तो जो व्यक्ति मिथ्याचरण में लिप्त है उसे नारायण की कामना होते हुए भी नारायण साध्य नहीं होंगे। वहीँ दूसरी तरफ यदि कोई व्यक्ति सत्य का आचरण व्यवहार में लाता है तो उसे नारायण की कामना हो या नहीं हो, परन्तु नारायण की कृपा अवश्य प्राप्त होगी। ध्यान रहे यहाँ सत्य के आचरण की बात हो रही है सिर्फ सत्य बोलने की नहीं। सत्याचरण की व्याख्या कहीं विस्तृत है जिसकी चर्चा फिर कभी करेंगे। ठीक उसी तरह मिथ्याचरण का दोष, मिथ्यावाचन से कहीं अधिक गम्भीर है।
नारायण ही सत्य हैं। आईये अब इस कथन पर विचार करते हैं। धन, पद, नाम, यश जैसे सांसारिक लोभ हमारी आँखों पर पर्दा डाल देते हैं और हम इस सँसार को ही सत्य मान बैठते हैं। इस परदे के रहते हम भूल जाते हैं कि आखिर यह संसार इतना सहज और सुगम कैसे चल रहा है। कैसे ये अनंत ब्रह्माण्ड से सूक्ष्मतम का कण, विशालकाय जीवों से लेकर माइक्रो ऑर्गैस्मिक जीव अपने-अपने जीवन चक्र को पूरा कर रहे हैं। सांसारिक योजनाओं को बनाते समय हम भूल जाते हैं कि सिर्फ कुछ पल में ही श्रृष्टि इस सँसार को बिगाड़कर पुनः स्थापित कर सकती है। और यह सिर्फ दार्शनिक कथन नहीं है अपितु विज्ञान की कसौटी पर परखी हुई सत्यता है। वह अनंत शक्ति जिसकी थाह लेने के लिए अनंत सत्य में गोते मारने पड़ जायें वो ही नारायण हैं। वो शक्ति ही नारायण हैं। जिस दिन यह समझ आ गया कि उस अनंत सत्य के महासागर में गोते मारने के लिए सबसे पहले अपने आप को ढीला छोड़ना पड़ेगा, अपनी अकड़ को कम करना पड़ेगा, लोभ की साँस रोककर रखनी होगी, उसी दिन नारायण तक अपने-आप पहुँच जाओगे। अहम् ब्रह्मास्मि यही तो है। ध्यान रहे यहाँ पर सँसार छोड़ने की बात नहीं हो रही है।
ध्यान रहे विस्तृत अर्थों में नारायण की प्राप्ति होना, सत्य की प्राप्ति होना है। और सत्य का साथ देने वाले कभी अशांति नहीं फैलाते। सही अर्थों में जो नारायण को समझ लेंगे वह हमेशा ही शांति के पक्षधर होंगे।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"