" उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि "
" हे जाज्वल्यमान अग्निदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं । श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते हैं और दिन-रात, आपका सतत गुणगान करते हैं । हे देव ! हमें आपका सान्निध्य प्राप्त हो॥"
मेरे मतानुसार, इस श्लोक में ईश्वर के समक्ष अपनी पात्रता बताई गई है । संकल्पों एवं सत्कर्मों द्वारा ही अभीष्ट की प्राप्ति होती है। ईश्वर अथवा अग्नि के सच्चे स्वरुप को जान लेने के बाद, प्रत्येक क्षण उस अग्नि या ईश्वर का स्मरण निश्चय पथ से , सत्कार्यों से भटकने नहीं देता है। अग्नि और ईश्वर सभी कार्यों के साक्षी हैं और वह हमारे सब कर्मों को देखता है। ऐसा सत्य विदित हो जाने के उपरांत उस ईश्वर को एक पल भी भूला नहीं जा सकता है और अधर्म करने की कभी भी इच्छा नहीं होती है। अग्नि को साक्षी मान लेने के उपरान्त सारे कारण सत्कार्यों की ओर उन्मुख होने लगते हैं।
एक नहीं, सत-सहस्त्र नेत्र हैं,
कोटि-कोटि कर्मों के साक्ष्य हैं,
अग्नि साक्षी है तभी तो पवित्रतम,
सत्कार्यों से भटके न लक्ष्य हैं ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "